Monday, November 10, 2025

नेपाल राजनीति: Gen-Z आंदोलन में फूट, सुशीला कार्की नहीं अब कुलमान घिसिंग प्रधानमंत्री पद के दावेदार

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Hemant Raushan
Hemant Raushan
Delhi-based content writer at The Rajdharma News, with 5+ years of UPSC CSE prep experience. I cover politics, society, and current affairs with a focus on depth, balance, and fact-based journalism.

Nepal politics: नेपाल इस समय सबसे बड़े राजनीतिक संकट का सामना कर रहा है। देशभर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच अंतरिम सरकार बनाने की कोशिशें तेज हो चुकी हैं। सेना और आंदोलनकारियों के बीच लगातार बैठकें हो रही हैं ताकि नया राजनीतिक समीकरण बनाया जा सके। शुरुआत में प्रदर्शनकारियों ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए सुझाया था। लेकिन जैसे-जैसे बातचीत आगे बढ़ी, मतभेद गहराते गए और नया नाम सामने आया। अब कुलमान घिसिंग को अंतरिम प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताया जा रहा है। यह घटनाक्रम साफ करता है कि नेपाल राजनीति इस समय बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है, जहां हर दिन स्थिति बदल रही है और नए समीकरण बन रहे हैं।

कुलमान घिसिंग का नाम क्यों आया आगे

कुलमान घिसिंग नेपाल विद्युत प्राधिकरण के पूर्व प्रबंध निदेशक रहे हैं। देश में बिजली संकट खत्म करने और ऊर्जा सुधारों की वजह से वे जनता के बीच लोकप्रिय बने। उनकी पहचान एक साफ छवि वाले और निर्णायक फैसले लेने वाले अधिकारी की रही है। यही कारण है कि आंदोलनकारियों के एक बड़े समूह ने उन्हें अंतरिम प्रधानमंत्री पद के लिए उपयुक्त बताया। Gen-Z द्वारा जारी एक पत्र में कहा गया कि घिसिंग “देशभक्त और सबसे स्वीकार्य चेहरा” हैं, जिन्हें जनता का व्यापक समर्थन मिल सकता है। आंदोलनकारी मानते हैं कि उनकी ईमानदार छवि और काम करने का अनुभव मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता को संतुलित कर सकता है। इस तरह उनका नाम आने से नेपाल राजनीति की दिशा एकदम अलग दिखने लगी है।

Gen-Z आंदोलन में दरार, मतभेद गहराए

हालांकि, Gen-Z आंदोलन की एकता अब टूटने लगी है। प्रदर्शनकारियों के बीच ही फूट पड़ गई है। कुछ युवाओं का आरोप है कि गलत लोगों को बातचीत का हिस्सा बनाया गया है और पूरी प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। उनका कहना है कि बातचीत राष्ट्रपति भवन में होनी चाहिए और इसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए। कई युवाओं ने अपनी नाराजगी जताते हुए कहा कि आंदोलन की मूल भावना को दरकिनार किया जा रहा है। “अगर बातचीत जनता की ओर से हो रही है, तो यह सबके सामने होनी चाहिए, न कि बंद कमरों में।” इस मतभेद ने आंदोलन को कमजोर करने का काम किया है और यही वजह है कि सेना और आंदोलनकारी नेताओं के बीच बनी सहमति पर भी सवाल उठने लगे हैं। दरअसल, यह दरार नेपाल राजनीति को और उलझा रही है।

बालेन्द्र शाह और सुशीला कार्की पर छिड़ा विवाद

अंतरिम प्रधानमंत्री के नाम को लेकर पहले काठमांडू महानगरपालिका के मेयर बालेन्द्र शाह का नाम सबसे आगे था। लेकिन शाह ने साफ कर दिया कि वह इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनना चाहते। वहीं, पूर्व न्यायाधीश सुशीला कार्की का नाम भी कई युवाओं ने आगे बढ़ाया था। उनके समर्थन में शुरुआत में जोर दिखा, लेकिन बाद में उनके साथ जुड़े विवाद और उम्र सीमा के मुद्दे ने उन्हें पीछे कर दिया। आंदोलन के कई नेताओं का मानना है कि देश को एक नया चेहरा चाहिए, जो युवाओं को प्रेरित कर सके और जिस पर जनता भरोसा कर सके। इसी कारण से कुलमान घिसिंग को एक व्यावहारिक और मजबूत विकल्प के तौर पर सामने रखा गया। उनका प्रशासनिक अनुभव और कामकाजी छवि उन्हें नेपाल राजनीति में एक अहम उम्मीदवार बना रही है।

सेना की भूमिका और भविष्य की तस्वीर

इस पूरे घटनाक्रम में नेपाली सेना की भूमिका भी काफी अहम हो गई है। सेना मुख्यालय में आंदोलनकारियों और सेना लीडरशिप के बीच कई दौर की बैठकें हो रही हैं। सूत्रों के अनुसार, सेना ने पूर्व न्यायाधीश सुशीला कार्की और उद्योगपति दुर्गा प्रसाई से भी अलग से बातचीत की है। सेना चाहती है कि जल्द से जल्द अंतरिम सरकार बने ताकि देश में शांति और स्थिरता लौट सके। लेकिन आंदोलन के भीतर की असहमति और अलग-अलग नामों पर टकराव इस प्रक्रिया को लंबा खींच रहा है। ऐसे हालात में नेपाल राजनीति का भविष्य अनिश्चित नजर आ रहा है। अब देखना होगा कि कुलमान घिसिंग को लेकर बनी सहमति क्या वास्तव में अंतरिम सरकार बनाने का रास्ता खोल पाएगी या आंदोलन के भीतर की दरार इस कोशिश को नाकाम कर देगी।

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