Malegaon Blast Case Verdict: प्रज्ञा ठाकुर का नाम पहली बार तब सुर्खियों में आया जब वे भगवा वस्त्रों में धार्मिक आयोजनों और आध्यात्मिक सभाओं में दिखाई देने लगीं। उन्होंने आरएसएस की छात्र इकाई एबीवीपी में सक्रिय भूमिका निभाई और विभिन्न हिंदुत्व संगठनों से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा। उस दौर में उनकी छवि एक साध्वी की थी जो भारत की संस्कृति, धर्म और गौरव की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देती थीं। लेकिन साल 2008 में जब मालेगांव बम धमाका हुआ, तो प्रज्ञा का नाम अचानक एक ऐसे विवाद में जुड़ गया जिसने सब कुछ बदल दिया। साध्वी की पहचान एक झटके में एक आतंकी केस की आरोपी बन गई। यह वो मोड़ था जब भगवा चोले में दिखने वाली एक महिला भारत की सबसे संवेदनशील सुरक्षा चर्चा का केंद्र बन गईं।

17 साल की कानूनी लड़ाई, एक मोटरसाइकिल और उठते सवाल
प्रज्ञा ठाकुर को अक्टूबर 2008 में ATS ने गिरफ्तार किया। आरोप था कि जिस बाइक से ब्लास्ट हुआ, वह उनके नाम से रजिस्टर्ड थी। गिरफ्तारी के बाद उन्होंने कई बार मीडिया और कोर्ट में कहा कि उन्हें झूठे केस में फंसाया गया, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे भगवा पहनती हैं और हिंदू हैं। इस गिरफ्तारी के साथ ही देश में ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्द चर्चा में आने लगे। राजनीतिक बहस तेज हो गई और कई लोगों ने इसे एक खास विचारधारा को बदनाम करने की साजिश करार दिया। इस दौर में प्रज्ञा अकेली साध्वी नहीं थीं, वे हिंदूवादी संगठनों के लिए एक प्रतीक बन चुकी थीं—एक ऐसी महिला जो ‘आस्था के खिलाफ षड्यंत्र’ का शिकार हो रही थी।

जेल से लेकर संसद तक: साध्वी प्रज्ञा का राजनीतिक उदय
लगभग 9 साल जेल में बिताने के बाद 2017 में उन्हें जमानत मिली। 2019 आते-आते भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें भोपाल लोकसभा सीट से दिग्विजय सिंह के खिलाफ मैदान में उतारा। यह फैसला जितना राजनीतिक था, उतना ही प्रतीकात्मक भी। प्रज्ञा ठाकुर के नामांकन के बाद यह राष्ट्रीय बहस का विषय बन गया—क्या एक आतंकी केस की आरोपी को संसद भेजना ठीक है? लेकिन जब नतीजे आए तो उन्होंने भारी मतों से जीत दर्ज की और यह साबित कर दिया कि एक विचारधारा के तहत उनकी स्वीकार्यता अब सिर्फ समर्थकों तक सीमित नहीं रही।

संसद में साध्वी और विवादों की समानांतर यात्रा
सांसद बनने के बाद प्रज्ञा ठाकुर अक्सर अपने बयानों को लेकर विवादों में रहीं। चाहे वह हेमंत करकरे पर दिया बयान हो या नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताना, हर बार विवाद ने उन्हें फिर से सुर्खियों में ला खड़ा किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तक कहना पड़ा कि वे उन्हें “मन से कभी माफ नहीं कर पाएंगे।” कई बार उनके बयानों को नफरत फैलाने वाला और विभाजनकारी बताया गया, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपनी विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया। खुद को वे बार-बार राष्ट्रवादी, गौभक्त और हिंदुत्व की प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करती रहीं।

मालेगांव केस में बरी होना: एक फैसले से क्या बदलेगा?
17 साल बाद कोर्ट का यह फैसला साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के लिए सिर्फ कानूनी राहत नहीं है। यह एक मजबूत राजनीतिक संदेश भी बन गया है। उनके समर्थक इसे ‘न्याय की जीत’ और ‘आस्था की रक्षा’ की तरह देख रहे हैं। अब जब वे दोषमुक्त हैं, सवाल उठता है—क्या वे फिर से राजनीतिक रूप से सक्रिय होंगी? क्या वे एक ‘धार्मिक योद्धा’ की तरह जनता के बीच लौटेंगी या अध्यात्म की राह पर वापसी करेंगी? जो भी रास्ता वे चुनें, इतना तय है कि प्रज्ञा ठाकुर अब सिर्फ एक नाम नहीं, एक विमर्श बन चुकी हैं।

कानून, आस्था और राजनीति के त्रिकोण में एक साध्वी
साध्वी प्रज्ञा का सफर साधना से संसद, और अदालत से आत्म-छवि की पुनर्स्थापना तक पहुंचा है। 2008 से 2025 तक का यह संघर्ष उनकी निजी नहीं, बल्कि भारत की बदलती राजनीति और धार्मिक विमर्श का भी आईना है। आज वे बरी हो चुकी हैं। लेकिन असल परीक्षा अब शुरू होती है—क्या वे खुद को फिर से एक राजनेता के रूप में गढ़ेंगी या आत्मिक शांति के मार्ग पर लौटेंगी?
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