New Delhi: लोकसभा में एक संवैधानिक रूप से अहम और दुर्लभ कदम उठाया गया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश किया गया, जिससे उन्हें पद से हटाने की औपचारिक प्रक्रिया शुरू हो गई। यह प्रस्ताव 31 जुलाई 2025 को प्राप्त हुआ था, जिस पर पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद और विपक्ष के नेता समेत कुल 146 लोकसभा सदस्यों और 63 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षर हैं। मामला उस विवाद से जुड़ा है, जब उनके सरकारी आवास में आग लगने के बाद जले हुए नोटों के बंडल बरामद हुए थे। इसके साथ ही संविधान के अनुच्छेद 124(4), 217 और 218 के तहत कार्रवाई का रास्ता साफ हो गया।

क्या है पूरा मामला
14 मार्च 2025 को दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास में आग लगी थी। आग बुझाने पहुंचे दमकल कर्मियों को आउट हाउस में अधजले नोट मिले। हालांकि, इस बात का खुलासा कई दिनों बाद हुआ, जिससे मामले ने तूल पकड़ लिया। जैसे ही खबर मीडिया में फैली, कोलेजियम ने तत्काल बैठक बुलाकर उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर करने का निर्णय लिया। इस बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने उनके तबादले का विरोध करते हुए हड़ताल की घोषणा कर दी। जस्टिस वर्मा ने अपनी सफाई में पत्र लिखकर इन आरोपों को “बेतुका, अविश्वसनीय और हास्यास्पद” बताया।

जांच और समिति का गठन
विवाद बढ़ने पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने तीन जजों की एक आंतरिक न्यायिक समिति गठित कर जांच का आदेश दिया। इस समिति में अलग-अलग हाईकोर्ट के न्यायाधीश शामिल थे। रिपोर्ट में कहा गया कि जस्टिस वर्मा “इस नकदी पर नियंत्रण रखते थे”। इसी आधार पर मुख्य न्यायाधीश ने उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश की। अब लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने महाभियोग प्रस्ताव पढ़ते हुए तीन सदस्यीय वैधानिक समिति के गठन की घोषणा की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरविंद कुमार, मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस मनिंदर मोहन श्रीवास्तव और कर्नाटक हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता वीवी आचार्य शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
जस्टिस वर्मा ने आंतरिक जांच रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। उन्होंने आरोप लगाया कि जांच में प्रक्रिया संबंधी खामियां हैं और यह संवैधानिक अधिकार क्षेत्र से बाहर है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी याचिका खारिज कर दी। अदालत ने कहा कि जांच प्रक्रिया पारदर्शी रही और वर्मा ने पहले इसमें भाग लिया, बाद में वैधता पर सवाल उठाना उचित नहीं है। इस फैसले ने संसद में महाभियोग प्रक्रिया को और मजबूत कर दिया।

महाभियोग के संवैधानिक चरण
अगर समिति आरोपों को सही ठहराती है, तो महाभियोग प्रस्ताव को लोकसभा और राज्यसभा दोनों में विशेष बहुमत से पारित करना होगा। इसके लिए उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई मत और कुल सदस्यों का बहुमत आवश्यक होगा। इसके बाद ही प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाएगा। यह स्वतंत्र भारत का तीसरा मौका है, जब किसी कार्यरत न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रक्रिया शुरू हुई है।

कानूनी और जन प्रतिक्रिया
यह मामला न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही पर बड़ी बहस का कारण बन गया है। कई लोग इसे कानून के शासन और संस्थागत ईमानदारी के लिए सकारात्मक कदम मानते हैं, जबकि कुछ इसे न्यायाधीशों की स्वतंत्रता के लिए खतरा बताते हैं। सोशल मीडिया और कानूनी मंचों पर इस पर गर्म चर्चा जारी है। अब निगाहें तीन सदस्यीय समिति की रिपोर्ट पर टिकी हैं, जो इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के अगले कदम को तय करेगी और भारतीय न्याय व्यवस्था के भविष्य पर असर डाल सकती है।

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