Tuesday, April 8, 2025

कौन है आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा ?

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झारखण्ड के साथ एक नाम जुड़ा है बिरसा मुंडा। जब भी झारखण्ड की बात होती है तब साथ में बिरसा मुंडा की भी बात होती है। झारखण्ड के वो क्रन्तिकारी जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, आंदोलन किये और महज 25 साल की उम्र में वो शहीद हो गए।

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलिहातू गाँव में हुआ था। उनके पिता सुगना मुंडा और माता करमी हातू थीं। बिरसा मुंडा एक साधारण आदिवासी परिवार से थे। बिरसा मुंडा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा उलिहातू गाँव के एक स्थानीय स्कूल में प्राप्त की।

इसके बाद, एक मिशनरी स्कूल में दाखिला करने के लिए उन्होंने धर्म परिवर्तन किया वो ईसाई बने।
जब उन्होंने स्कूल जाना शुरू किया तब उनको ये पता चला की शिक्षा के माध्यम से अंग्रेज आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करवा रहे हैं, जिसके बाद उन्होंने जल्द ही स्कूल छोड़ दिया और अपने समुदाय के लोगों की समस्याओं को समझने और हल करने के लिए काम करना शुरू कर दिया।

बिरसा मुंडा ने अपने समुदाय के लोगों की समस्याओं को समझते हुए अपने समुदाय के लोगों को संगठित करना शुरू किया और उन्हें अपने अधिकारों जल, जंगल, ज़मीन और आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया।
बिरसा मुंडा के आंदोलन का मुख्य उद्देश्य आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें शोषण से मुक्त करना था। उन्होंने अपने अपने समुदाय के लोगों का एक संगठन बनाया और उन्हें हथियारों का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। इस इस संगठन का नाम उन्होंने बिरसाइत दिया और बिरसाइतों ने खुले तौर पर घोषणा की कि असली दुश्मन अंग्रेज थे न कि ईसाई मुंडा। मुंडा विद्रोह का मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा और स्थानीय अधिकारियों द्वारा अनुचित भूमि हड़पने की प्रथा थी, जिसने आदिवासियों की भूमि व्यवस्था को नष्ट कर दिया था।

विद्रोह के दौरान मार्च 1900 को बिरसा मुंडा को गिरफ्तार किया गया और उन्हें जेल में डाला गया। उनकी मृत्यु 9 जून 1900 को जेल में ही हुई। उनकी मृत्यु के कारण को लेकर कई विवाद हैं, लेकिन यह माना जाता है कि उन्हें जहर दिया गया था।
बिरसा मुंडा की विरासत आज भी झारखंड और पूरे देश में महसूस की जा सकती है। झारखण्ड के आदिवासी आज भी उन्हें भगवान बिरसा मुंडा कहते हैं। उन्हें एक जननायक के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपने समुदाय के लिए लड़ाई लड़ी और अपने अधिकारों के लिए खड़े हुए। उनकी जयंती 15 नवंबर को झारखंड में एक राज्य अवकाश के रूप में मनाई जाती है। 15 नवंबर 2023 को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में घोषित कर दिया गया।

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